स्व. धर्माराव जी की तीन रचनाएँ पेल्लिदानि पुट्टुपूर्वोत्तरालु, सन् 1960 (विवाह-संस्कार: स्वरूप एवं विकास), देवालयालमीद बूतु बोम्मल्य ऐंदुकु, सन् 1936, (देवालयों पर मिथुन-मूर्तियाँ क्यों?) तथा इनप कच्चडालु, सन् 1940 (लोहे की कमरपेटियाँ) तेलुगु-जगत में प्रसिद्ध हैं। इन रचनाओं में प्रस्तुत किए गए विषयों में बीते युगों की सच्चाइयाँ हैं। इतिहास में इन सच्चाइयों का महत्त्व कम नहीं है। तीनों रचनाओं के विषय यौन-नैतिकता से सम्बन्धित हैं। इन रचनाओं में समाजमनोविज्ञान का विश्लेषण हुआ है।
लेखक ने इन पुस्तकों द्वारा अतीत के एक महत्त्वपूर्ण चित्र को हमारे सामने रखने का प्रयत्न किया है। एक समय में देवालयों में मिथुन-पूजा की जाती थी, कहने का मतलब यह कदापि नहीं कि आज भी देवालयों को उसी रूप में देखें। लेखक का उद्देश्य देवालय के उस आरम्भिक रूप तथा एक ऐतिहासिक सत्य की जानकारी देना है। आधुनिक देवालय दैवी-भक्ति तथा आध्यात्मिक चिन्तन के साथ जुड़े हुए हैं। आज देवालय जिस रूप में हैं, उसी रूप में रहें। आज हमें आध्यात्मिक चिन्तन की सख्त जरूरत है।
पुस्तक साधारण पाठक हों या विज्ञ पाठक, दोनों पर समान प्रभाव डालती है। जिज्ञासु पाठक इस प्रश्नचिह्न का उत्तर ढूँढ़़ने का प्रयास भी करते हैं। इस रचना में सारी दुनिया की सभ्यताओं की यौन-नैतिकता का चित्रण हमें मिलता है। देवालय तथा प्रजनन-तन्त्रों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब यह सम्बन्ध टूट जाएगा तब देवालयों का महत्त्व कम हो जाएगा। देवालय केवल प्राचीन अवशेषों के रूप में रह जाएँगे। प्रजनन-तन्त्रों के साथ दैवी भावना जुड़ी हुई है। देवालयों में मिथुन-मूर्तियाँ रखने के पीछे मिथुन-पूजा की भावना झलकती है। लेखक ने ऐसे कई उदाहरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पूजा के कई उपकरण स्त्री-पुरुष गुप्तांगों के ही प्रतीक हैं। देवालयों का निर्माण क्यों हुआ? इनमें मिथुन-मूर्तियाँ क्यों रखी जाती हैं? लिंग-पूजा का महत्त्व क्या है? पुरुष तथा स्त्री देवदासियों की आवश्यकता क्यों पड़ी? वीर्य-शक्ति का अर्पण कैसे होता है? फिनीशिया, बेबिलोनिया, अस्सीरिया, अमेरिका, न्यूगिनी आदि देशों की कई प्रथाओं में मिथुन-पूजा की भावना क्यों झलक पड़ती है? पंडा शब्द का अर्थ क्या है? पंडाओं का देवालयों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध है? आन्ध्र के कुछ त्योहारों में तथा श्राद्ध में बनाए जानेवाले कुछ व्यंजनों के आकारों के पीछे की भावना क्या है? कुछ उत्सवों में लोग स्त्री-पुरुष गुप्तांगों से सम्बन्धित अश्लील गालियाँ क्यों देते हैं? मन्त्रपूत सम्भोग क्या है? क्यों किया जाता है? अश्वमेघ यज्ञ, काम-दहन, चोली-त्योहार आदि क्यों मनाए जाते हैं? समाज-शास्त्र की दृष्टि से तथा स्त्री-पुरुषों के मनोविज्ञान की दृष्टि से इनका महत्त्व क्या है? आदि विषयों का प्रमाण सहित विश्लेषण यहाँ किया गया है और इन प्रश्नों का समाधान सामाजिक मनोविज्ञान की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। जिज्ञासु पाठकों के लिए ‘देवालयों पर मिथुन-मूर्तियाँ क्यों?’ एक महत्त्वपूर्ण जानकारी देनेवाली रचना है।
प्रकाशित रचनाएँ: पेल्लिदानि पुट्टु पूर्वोत्तरालू, देवालयाल मीद बूतु बोम्मल ऐंदक, इनपकच्चडालु, रालु-रप्पलु, मस्वु तेरलु, कोत्त पाली, पात पाली, साहित्य मोरमारालु, आल इंडिया, अडुक्कु तिनेवाल्ल महासभा।
निधन: 8 मई, 1973
एदुकूरू प्रसाद राव
जन्म: आन्ध्र प्रदेश के जिला गुंटूर, जिसका प्राचीन तेलुगु साहित्य से आधुनिक तेलुगु साहित्य की विकास यात्रा में महत्त्वपूर्ण योगदान है 19-7-1936 में हुआ।
शिक्षा: आन्ध्र विश्वविद्यालय से एम.ए. उस्मानिया विश्वविद्यालय से 1983 में पी-एच.डी. की।
1960 से अध्यापन कार्य का आरम्भ हुआ।
1994 में हैदराबाद में शंकरलाल धनराज सिग्नोडिया कॉलेज के तेलुगु विभाग के रीडर के पद से सेवा निवृत्त हुए।