–––गली तो चारों बन्द भई हैं,
हरि से कैसे मिलूँ री जाय ?
ऊँची नीची राह रपटीली पाँव नहीं ठहराँय,
सोच–सोच पग धरूँ जतन से
बार–बार डिग जाँय––– –मीराबाई
–––‘‘बीस साल पहले बसमतिया थी, बीस साल बाद भँवरीबाई है । कितना साम्य है बसमतिया और भँवरीबाई में । फिर भी कितना फर्क है–––दोनों गरीब, दोनों दलित, दोनों एक ही अपराध (बलात्कार) की शिकार! दोनों ने गाँव के फैसले को मानने से इनकार किया ।
–––एक जिन्दा जला दी गई, एक ने दोबारा जीवन शुरू किया ।
–––कितने स्नेह, शोक, अपमान, सम्मान, दु%ख, सुख के बाद एक औरत इंसान बनकर खड़ी हो पाती है, और बसमतिया से भँवरीबाई तक का सफर तय होता है ।’’
मणिमाला % एक सफरµबसमतिया से भँवरीबाई तक में
यह जो सफर बसमतिया से भँवरीबाई तक ने बीस बरसों में तय किया, उससे भी बड़ा और दुरूह सफर वह है, जो हमारी महिला–पत्रकारों, लेखिकाओं ने तय किया हैय मीराबाई से लेकर मणिमाला तक । यह संकलन इंडियन वीमेंस प्रेस कोर की एक विनम्र कोशिश है, उस सफर को अपने–अपने ढंग से आज भी तय कर रही लेखिकाओं की कलम से प्रस्तुत करने की । इस सफर में हास्य भी है, करुणा भीय आक्रोश भी है, और क्षमा भी %
‘‘ कृष्ण कली तब हर साहित्यिक घर की किराएदारिन थी । उसके देर से घर लौटने का इंतजार हर मकान मालिक करता था और मैं करती थी अखबार वाले का इंतजार । उन दिनों मेरा कोई घर नहीं था, जहाँ मैं ‘कृष्ण कली’ को रखती, सो उसे मैंने रखा था अपनी पलकों पर ।’’
पद्मा सचदेव % शब्दों का हरसिंगार में
जिस समाज में जनगणना–दर–जनगणना औरतों और बच्चियों की तादाद लगातार घट रही होय जहाँ निरोधी–कानूनों के बावजूद दहेज–उत्पीड़न जारी हो, और गर्भजल–परीक्षण (अम्नीयोसेंटेसिस) तकनीक की मदद से कन्या–भ्रूणों की गर्भपात द्वारा हत्या की जा रही होय वहाँ एक स्त्री के लिए न सिर्फ अपने वजूद को कायम रखनाय बल्कि देश के कोने–कोने में घट रहे सकारात्मक और नकारात्मक बदलावों को लेखन और पत्रकारिता की मुख्यधारा में दर्ज कराते चलनाय कुदरत के महानतम अचम्भों में से एक माना जाना चाहिए । ग्रन्थ में संकलित इन लेखों की कमानी स्वतन्त्रता के बाद के भारत के पूरे पचास–साला इतिहास को अपनी तरह से मापती है । इसमें बच्चों की दुनिया (मृदुला गर्ग, पारुल शर्मा), आदिवासी तथा दलित औरतों की संघर्ष–गाथा (इरा झा, मणिमाला, मनीषा), आतंकवाद तथा शराब के मुद्दों से जूझती महिलाओं का जीवट (अमिता जोशी और सुषमा वर्मा), पंचायतों,पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक आन्दोलनों में स्त्रियों की भागीदारी (अन्नू आनन्द, अलका आर्य, गीताश्री), चुनावों में उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति (नीलम गुप्ता), देह व्यापार (उषा महाजन), स्त्रियों के जीवन में तनाव तथा हिंसा (जयन्ती, उषा पाहवा, मीना कौशिक), लिंगगत गैर–बराबरी के विभिन्न सामाजिक–आर्थिक मंच (रजनी नागपाल, रश्मिस्वरूप जौहरी) तथा फिल्म, ललित कलाएँ तथा युवाओं की समस्याएँ (मंजरी, सन्तोष मेहता, सरोजिनी बर्तवाल)µसभी विषय समेटे हुए हैं ।
माँ को हमारे यहाँ भले ही आदि–गुरु कहा जाता हो, औपचारिक तौर पर इतिहास–लेखन पर पुरुषों का ही दबदबा रहा है । इसलिए शायद अनजाने में ही हमारे समाज और राज में औरतों की सशक्त भागीदारी की कहानियाँ अक्सर इतिहास की किताबों से बेदखल होती रही हैं । नतीजतन खुद औरतों को अपनी जमात की सही तस्वीर, राज–काज और समाज के निर्वहन में उनकी भूमिका समझ पाने में वक्त लगा है %
–––‘‘समाज के शिल्पकारों ने औरत के जहन में पुरुष की वीरता, ताकत की ऐसी शौर्यगाथाएँ लिखीं कि उसके दिमाग में कभी यह सवाल कौंधा ही नहीं कि सिर्फ हमारे पूर्वज पिताजी ने ही नहीं, हमारी पूर्वजा माँओं ने भी इतिहास रचा है–––’’
अलका आर्य % वीरता कोई खुशबू नहीं में
–––‘‘कथा लेखिकाओं से शायद उत्सुकतावश ही यह अवश्य पूछा जाता है कि उन्होंने लिखना कैसे शुरू किया । अच्छे–खासे बैठे–बिठाए उन्हें क्या पड़ी थी कि वे लेखिका बन बैठीं ?’’
उषा महाजन % पुरुष के समाज में महिला लेखिकाएँ में
–––‘‘हशमत सख्त हो गए । याद रख प्यारे, लिखना वह धन्धा नहीं कि अगर तुमने पचास लाख कमाए हैं तो हमने पाँच करोड़–––तुम इतना कड़ा दाना हो कि चाहो भी तो आत्महत्या न कर पाओगे । तुम डरकर भागने वालों में से नहीं हो ।–––’’