चलूँ, आज मुझे तक़दीर बुलाने आई है
"पंजाबी के शीर्षस्थ कवियों और कथाकारों में गणनीय अमृता प्रीतम की सृजन-प्रतिभा को नारी-सुलभ कोमलता और संवेदनशीलता के साथ-साथ मर्मभेदिनी कला-दृष्टि का सहज वरदान प्राप्त है। उनके रचनाकार की यह विशिष्टता उन्हें एक ऐसा व्यक्तित्व प्रदान करती है जो तटस्थ भी है और आत्मीय भी। निजता की भावना से उनकी कृतियाँ सराबोर हैं। उनकी रचनाएँ प्रेम और यौवन के धूप-छाँही रंगों में अतृप्त का रस घोलकर उच्छल काव्य-बदिरा का आस्वाद अपने पाठकों को करवाती है। आधुनिक यन्त्र-युग की देन मनुष्य के आंतरिक सूनेपन को भी अमृता जी ने बहुत सघनता के साथ चित्रित किया है।"
अमृता प्रीतम प्रतिनिधि कविताएँ : https://goo.gl/xyqcby
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धूप का टुकड़ा
मुझे वह समय याद है---
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।
सोचती हूँ: सहम और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस छोटे बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया।
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है।
अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा।
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दावत
रात-कुड़ी ने दावत दी
सितारों के चावल फटक कर
यह देग किसने चढ़ा दी
चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पीकर
आकाश की आँखें गहरा गयीं
धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर
फूल मेहमान हुए हैं
आगे क्या लिखा है
आज इन तक़दीरों से
कौन पूछने जायेगा...
उम्र के काग़ज़ पर —
तेरे इश्क़ ने अँगूठा लगाया,
हिसाब कौन चुकायेगा !
क़िस्मत ने एक नग़मा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात
वही नग़मा गायेगा
कल्प-वृक्ष की छाँव में बैठकर
कामधेनु के छलके दूध से
किसने आज तक दोहनी भरी !
हवा की आहें कौन सुने,
चलूँ, आज मुझे
तक़दीर बुलाने आई है...
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ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
एक बार अचानक – तू आया
वक़्त बिल्कुल हैरान
मेरे कमरे में खड़ा रह गया।
साँझ का सूरज अस्त होने को था,
पर न हो सका
और डूबने की क़िस्मत वो भूल-सा गया...
फिर आदि के नियम ने एक दुहाई दी,
और वक़्त ने उन खड़े क्षणों को देखा
और खिड़की के रास्ते बाहर को भागा...
वह बीते और ठहरे क्षणों की घटना –
अब तुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और शायद वक़्त को भी
फिर वह ग़लती गवारा नहीं
अब सूरज रोज वक़्त पर डूब जाता है
और अँधेरा रोज़ मेरी छाती में उतर आता है...
पर बीते और ठहरे क्षणों का एक सच है –
अब तू और मैं मानना चाहें या नहीं
यह और बात है।
पर उस दिन वक़्त
जब खिड़की के रास्ते बाहर को भागा
और उस दिन जो खून
उसके घुटनों से रिसा
वह खून मेरी खिड़की के नीचे
अभी तक जमा हुआ है...
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