यह मिथिला और कुसुमाकर के अधूरे प्रेम की कहानी है। उनमें भी मिथिला की ज्यादा, कुसुमाकर की कम। एक पारम्परिक, संस्कारी परिवार की संगीत-प्रेमी मिथिला अन्तत: इस संसार से उस प्रेम के बिना ही विदा हो गई जिस प्रेम की प्यास उसकी आत्मा तक भरी हुई थी।
संगीत में गहरी रुचि का धनी कुसुमाकर जीवन की आवश्यकताओं के मद्देनजर पहले उससे दूर चला जाता है, उसे खयाल भी नहीं आता कि जिस मिथिला को वह अपने ऑटोग्राफ देकर चला आया है, वही एक दिन उसके जीवन में लौटेगी। वह लौटी और उसकी अतृप्त रूह का एकमात्र आसरा बन गई, पर तब तक वह किसी और की हो चुकी थी। कोई ऐसा व्यक्ति उसके जीवन का कर्णधार हो गया था जो उसके मन को नहीं समझता था।
लेकिन जो उसे आपादमस्तक समझता-जानता था, क्या वह उसका हो सकता था? नहीं। अन्तत: वही हुआ। मृत्यु-शैया पर लेटे हुए मिथिला ने उसे अपना अन्तिम पत्र लिखा, और उसके प्रति अपनी आत्मा में बसे प्यार को स्वीकार करते हुए बताया कि वह जा रही है, उस अज्ञात की ओर जहाँ हो सकता है वे कभी मिलें, या हो सकता है कभी नहीं मिलें।
गहरे प्रेम से पगी इस प्रेम-कथा को पढऩा अधूरी और अतृप्त रूहों से भरे हमारे वर्तमान को एक राहत देता है, और हमें सोचने पर भी विवश करता है।
शिक्षा : केन्द्रीय विद्यालय, रानीखेत से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण कर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रानीखेत से बी.एससी. में स्नातक तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से बायोटेक्नोलॉजी में स्नातकोत्तर की उपाधि।
लेखन, गायन तथा विभिन्न प्रकार के व्यंजनों के विषय में शोध तथा उन्हें बनाने में रुचि।