आजादी के सत्तर साल बाद आज भारत हमें जिस रूप में प्राप्त होता है, वह विडम्बनाओं और विरोधाभासों का कहीं से सिला, कहीं से उधड़ा एक जटिल ताना-बाना है। उसका कोई एक रूप नहीं है। विस्तृत भूभाग और इतिहास में दूर तक फैली सांस्कृतिक जड़ों के चलते उसे समझना यूँ भी सहज नहीं है। आज़ादी के बाद बने राष्ट्र के रूप में वह और पेचीदा हुआ है। यहाँ अगर आधुनिकता अपने शुद्धतम रूप में दिखती है तो परम्पराओं की जकड़बन्दी भी उतनी ही कसी हुई है। विकास है तो भ्रष्टाचार भी है, बहुरंगी विविधता में सहअस्तित्व और सहिष्णुता की भावना चमत्कृत करती है तो साम्प्रदायिकता और जातिवाद की भयावह अकुलाहट डराती भी है।
‘त्रिशंकु राष्ट्र’ भारतीय अस्मिता की इसी पहेली को समझने की कोशिश है। निजी और ऐतिहासिक स्मृतियों को व्यापक सामाजिक और सभ्यतागत सन्दर्भों में विश्लेषित करते हुए लेखक ने स्वातंत्र्योत्तर भारत का एक दिलचस्प खाका तैयार किया है जिसमेें हम, जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, प्रशासन, भ्रष्टाचार, शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति आदि का गहरा विश्लेषण पाते हैं।
दुर्लभ वाग्विदाग्धता के साथ अपने और आसपास के संस्मरणों के आईने से यह किताब भारतीय उपमहाद्वीप के वृहत्तर जीवन की विभिन्न तहों को उघाड़ती है।
दीपक कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के ज़ाकिर हुसैन शैक्षणिक अध्ययन केन्द्र में विज्ञान और शिक्षा के इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। वे मीडिया अध्ययन केन्द्र के भी समकालिक प्रोफेसर रहे हैं। वे इन दोनों केन्द्रों के अध्यक्ष भी रहे। प्रसिद्ध पुस्तक ‘साइंस एंड दी राज’ के लेखक प्रो. कुमार की विज्ञान, दवा, तकनीक और पर्यावरण के इतिहास पर कई किताबें हैं। देश-विदेश में अपने चार दशक के अध्यापन-काल में इन्होंने कई संस्थानों में इन विषयों को लोकप्रिय बनाने का काम किया।