कबीर विनयी परंतु निर्भीक साधक थे-दंभ-पाखंड से मुक्त, स्पष्टवादी, अहंकार-अनाचार से शून्य । सरल स्वभाव से भीत और पीड़ित को भक्ति की प्रेरणा और प्रोत्साहन देनेवाले ।
दीन-हीन मनुष्य के आत्मगौरव को जगानेवाले, अभयदान देकर सच्चे स्वातंत्र्य का सुख देनेवाले, शुष्क जीवन को सच्चिदानंदमय कर देनेवाले कबीर स्वतंत्रचेता, गूढ़-गंभीर रहस्य के ज्ञाता, उच्च कोटि के संत थे ।
उनका कोमल भक्त-हृदय अनेक संघर्षों के बीच अपने लक्ष्य के प्रति अनन्य परंतु पर्वत के समान निश्चल और सहिष्णु था । वे अपनी साधना में निरंतर. गुरु की छत्र-छाया का अनुभव करते हुए आत्मनिर्भर, अव्याकुल और उदार, आत्मविश्वासी, सत्यान्वेषी और अहिंसा-प्रेमी थे ।
अपनी अलोलुप वृत्ति के कारण वे निर्विषयी थे और मिथ्याभिमान से मुक्त । साधना के उत्कर्ष के लिए आत्मसुधार और आत्मान्वेषण की प्रेरणा देनेवाले निन्दकों को अपने आसपास बिठाने में उन्हें कोई आपत्ति न थी ।
अपनी बुद्धि और अनुभव की कसौटी पर सत्य की परख करनेवाले कबीर कभी शास्त्र के आडम्बर से निस्तेज नहीं होते थे, बल्कि जड़, अंध मान्यताओं की धज्जी उड़ाते थे । अपनी तीव्र वाक्शक्ति और स्पष्ट आलोचना से वे किसी भी मिथ्यावादी का मुँह बन्द कर देते । वेद-कुरान के पाठ में उन्हें फलप्राप्ति-विषयक अंधविश्वास न था, वहाँ भी वे समझदारी का आग्रह रखते थे ।
प्रस्तुत पुस्तक उनके जीवन और दर्शन को सरल और ग्राह्य भाषा-शैली में प्रस्तुत करती है ।